औरत | नारी अत्याचार कविता | मीलिक एहमद | ट्विलाइट ऑफ पोएम
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| औरत :: twilightofpoem | 
- मीलिक एहमद
वोह एक औरत ही तो है, जो हमे जन्म दी है;
जो हमारे हर पल का ख्याल रखती है;
हमारे हर दुख को बांट लेती है,
वोह एक औरत ही तो है, जिसे हम माॅ कहते हैं!
वोह एक औरत ही तो है, जो हमारे हर ऐब को छुपाती है;
पापा के गुस्से और डांट से बचाती है,
गलतियों को छुपाके सही राह दिखाती है,
वोह एक औरत ही तो है, जिसे हम बहन कहते हैं!
गर्मियों की उन रातों में, चांद सितारों से सजी
खुले आसमान के नीचे,
परियों की जो कहानी सुनाया करती थी,
एक औरत ही तो है!
हमारी हर गलती के बाद,
राजा रानी की कहानी सुनाके सीख देने वाली,
वोह एक औरत ही तो है, जिसे हम दादी कहते हैं!
बचपन से जवानी तक, कदम कदम पे साथ देने वाली
वोह एक औरत ही तो है,
जिसे हमने माॅ, बहन, दादी के रूप में पाया है!
फिर क्यों ऐसा होता है,
अक्सर, मर्द नाम के कुछ जानवर को,
चौराहे पे बैठे, औरतों पे ज़ुल्म करते देखा है!
क्यों ऐसा होता है,
जिनके सहारे लेकर हम बड़े होए है, उन्हीं औरतों को
अकेले राह में चलने के लिए अपने बाप भाई की जरुरत होती है!
खुले आसमान के नीचे आज़ाद परिंदो की तरह घूमना
ये उनका भी हक़ है,
उनका भी हक़ है, देर रातों में घर वापस लौटना,
हम ये क्यों नहीं समझते?
क्या यही इंसानियत है?
जिनके सहारे हम बड़े होए, आज उन्हीं को सताए!
जो हमारे हर पल का ख्याल रखती है;
हमारे हर दुख को बांट लेती है,
वोह एक औरत ही तो है, जिसे हम माॅ कहते हैं!
वोह एक औरत ही तो है, जो हमारे हर ऐब को छुपाती है;
पापा के गुस्से और डांट से बचाती है,
गलतियों को छुपाके सही राह दिखाती है,
वोह एक औरत ही तो है, जिसे हम बहन कहते हैं!
गर्मियों की उन रातों में, चांद सितारों से सजी
खुले आसमान के नीचे,
परियों की जो कहानी सुनाया करती थी,
एक औरत ही तो है!
हमारी हर गलती के बाद,
राजा रानी की कहानी सुनाके सीख देने वाली,
वोह एक औरत ही तो है, जिसे हम दादी कहते हैं!
बचपन से जवानी तक, कदम कदम पे साथ देने वाली
वोह एक औरत ही तो है,
जिसे हमने माॅ, बहन, दादी के रूप में पाया है!
फिर क्यों ऐसा होता है,
अक्सर, मर्द नाम के कुछ जानवर को,
चौराहे पे बैठे, औरतों पे ज़ुल्म करते देखा है!
क्यों ऐसा होता है,
जिनके सहारे लेकर हम बड़े होए है, उन्हीं औरतों को
अकेले राह में चलने के लिए अपने बाप भाई की जरुरत होती है!
खुले आसमान के नीचे आज़ाद परिंदो की तरह घूमना
ये उनका भी हक़ है,
उनका भी हक़ है, देर रातों में घर वापस लौटना,
हम ये क्यों नहीं समझते?
क्या यही इंसानियत है?
जिनके सहारे हम बड़े होए, आज उन्हीं को सताए!


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