Twilight Of Poem

घर से निकल गए जो परिंदा


घर से निकल गए जो परिंदा


घर से निकल गया जो परिंदा
वोह लौटकर फिर वापस ना आया।
भटकता रह गया सफर में
उन्हें सुकून का वोह मीठा अहसास
फिर से ना मिल पाया।
मुसाफिर चलते रहते है;
मंजिले बिछड़ती रहती है।
कुछ लम्हे हमेशा यादों के
माला में ठहेर जाता है।
समेट के उसे,
वोह आज भी मुस्कुराया करते है।
घर से निकल गया जो परिंदा
वोह लौटकर फिर वापस ना आया।
नई मंजिल की तालाश में
या फिर उलझी राह थी वजह।

लेखक:मिलीक अहमद।

(सभी अधिकार लेखक द्वारा आरक्षित है। उचित अनुमति के बिना नकल करना एक अपमानजनक कार्य है)

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